विज्ञान की शुरूआत इस विचार के साथ हुई थी कि इस ब्रह्माण्ड का मूल केन्द्र और मूल कण क्या है। मूल केंद्र उसे कहते है जिससे सारा ब्रह्माण्ड निकला है और जिस पर केन्द्रित है तथा मूल कण उसे कहते है जिससे बाकी सारे कणों का जन्म हुआ है और जो स्वयं अविभाजित है। यूनानी खगोलज्ञ टॉलेमी और डेमोक्रिटस ने इन दोनों विचारधाराओं को जन्म दिया। टॉलेमी का विचार था कि पृथ्वी विश्व का केन्द्र है तथा सूर्य, चांद और सितारे इसकी परिक्रमा करते है लेकिन 1543 ई0 में कोपरनिकस ने यह सिद्ध कर दिया कि ब्रह्माण्ड का केन्द्र पृथ्वी नहीं सूर्य है तथा पृथ्वी सहित बाकी सब ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते है। लेकिन जिस प्रकार कोपरनिकस ने टॉलेमी के विचार को गलत ठहराया था। उसी प्रकार 20 वीं शताब्दी में हार्ला शेप्ले ने इस धारणा को गलत सिद्ध कर दिया कि सूर्य का आकाशगंगा में कोई विशिष्ट स्थान है अर्थात् न तो पृथ्वी ब्रह्माण्ड का केन्द्र है ना सूर्य। पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगा रही है और सूर्य आकाशगंगा का तथा आकाशगंगा पता नहीं किस का। मूल केन्द्र की यह खोज आज भी जारी है। दूसरी तरफ डेमोक्रीटस द्वारा बताए गए Atom को सैकड़ों वर्षों तक मूल कण माना जाता रहा। पदार्थ का मूल कण पहले परमाणु को माना जाता था, फिर न्यूट्रोन को, उसके बाद प्रोटोन को, फिर इलेक्ट्रोन को, फिर क्वार्क को और अब Boson को God Particle कहा जा रहा है। परंतु ये भी सच नही है और मूल कण की खोज भी अब भी अधूरी है।
लेकिन इसी दौरान एक क्रांतिकारी घटना घटी । Quantum Physics की खोज ने एकाएक विज्ञान को अध्यात्म की दहलीज पर लाकर खड़ा कर दिया है। अनिश्चिता का सिद्धान्त क्वान्टम फिजिक्स की दार्शनिक देन है। Quantum Physics के इस सिद्धान्त में वैदिक ध्वनि की गूंज है। इसलिए मैं ये स्पष्ट रुप से देख रहा हॅू कि 21वीं सदी अध्यात्म की सदी है। इस सदी में भारतीय अध्यात्म की वैज्ञानिकता सिद्ध हो जाएगी। हाँ, निश्चित रुप से ऐसा होने जा रहा है और भाग्यशाली होंगे वे जो मानवजाति के उस गौरवपूर्ण पल के साक्षी बनेंगे जब विज्ञान की नदी अध्यात्म के महासागर में समा जाएगी।