ये इश्क ने देखा है, ये अक्ल से पिन्हा है।

कतरे में समन्दर है, जर्रे में बियाबॉँ है।।

सौ बार तेरा दामन, हाथों में मेरे आया।

जब आंख खुली तो देखा, ये मेरा ही गिरेबाँ है।।

पायथागोरस ने कहा था- ‘‘संगीत जीवन का आनंद है और अध्यात्म सर्वोत्तम संगीत है”| उन्हाने इसे Music of the Spheres कहा है। संत फ्रांसिस ने भी इस संगीत को सुनकर कहा था कि- “वस्तु स्थिति एक दिव्य संगीत है जिसका माधुर्य अतुलनीय है।’’ धूमकेतुओं की तरह भटकते रहने में क्या मजा है, असली मजा तो ध्रुव तारे की तरह ठहराव में है। एक व्यक्ति गधे पर उल्टा बैठा था। लोगों ने कहा-भईया उल्टे क्यों बैठे हो, तो उसने कहा-उल्टा मैं नहीं गधा है। दरअसल उल्टे हम है, जो उल्टी दिशा में आनन्द की तलाश कर रहे है। इस संसार में की जाने वाली आनन्द की खोज ठीक वैसी ही है जैसे कि चाँद पर जाने के लिए कोई गधे पर बैठा है, कोई घोड़े पर, कोई टैम्पों में, कोई कार में और कोई हवाई जहाज में। इस प्रकार आनन्द की खोज अधूरी ही रह जाती है। क्योंकि आनन्द वहां मिलेगा जहां वह है और आनन्द तो बाहर है ही नहीं, वह तो अन्दर है। बाहर इस शरीर की भूख मिट सकती है मन की नहीं।

क्या हम जानते है कि कौन सी वस्तु हमें Unlimited Fun दे सकती है। मन की दो कमजोरियां है, पहली- इसे सबसे बड़ा आनन्द चाहिए और दूसरी-यह एक ही आनन्द से बोर हो जाता है। जरा सोचिये, कौनसी ऐसी वस्तु है, जिसमें परम आनंद है ओर जिससे मन बोर नहीं हो सकता? इन दोनों कमजोरियों का समाधान केवल अध्यात्मिक आनन्द में है और इसे केवल ध्यान के जरिये ही हासिल किया जा सकता है। ये वो मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त जिसे हमारे संतो- महात्माओं ने सारी दुनियां के सामने रखा। इसीलिए गुरू नानकदेव ने कहा था- नाम खुमारी नानका , चढ़ी रहे दिन रात। हमें अपनी आध्यात्मिक विरासत को याद करना चाहिए। मीराबाई, तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभू, कबीर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम, ज्ञानेश्वर, पलटु, दादु, दरिया, बुल्लेशाह, फरीद आदि महात्माओं ने भारतभूमि पर रुहानी आनन्द के महासागर की झलक प्रस्तुत की। संसार में सब लोग एक ऐसे आनन्द की खोज में है जो कभी खत्म ना हो और जिसमें दुख न हो। अध्यात्म हमें ऐसी ही एक अवस्था में ले आता है जिसमें हम चहक उठते है-

मुझे मेरी मस्ती कहाँ लेकर आई। जहां मेरे अपने सिवा कुछ नहीं है।।

     अरे मैं हूँ आनन्द और आनन्द है मेरा। मस्ती ही मस्ती और कुछ नहीं है।।

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