जैसा कि बुद्धिवादी दार्शनिक Descartes (1596) ने कहा कि I think therefore I am. उनके इस वाक्य का विपरीत अर्थ यह है- If I would not think then I does not exist. सोचना (चिंतन) और होना (चेतना) एक दूसरे के पर्यायवाची बना दिए गए हैं। जबकि यह सत्य नहीं है। चेतना और चिंतन दो भिन्न-भिन्न अवस्थाएं हैं। चेतना से चिंतन होता है चिंतन से चेतना नहीं होती। चेतना कारण है और चिंतन उसका कार्य है। कार्य के बिना कारण रह सकता है, जबकि कारण के बिना कार्य नहीं रह सकता। जब चिंतन का प्रवाह पूरी तरह ठहर जाता है तभी मनुष्य परम चेतना (समाधि) के आयाम में दाखिल होता है। विचारों का सिलसिला मनुष्य को सत्य से दूर रखता है। विचारशून्य अवस्था का नाम ही समाधि है।

कुछ साथियों को यह बात जरा अटपटी लगेगी क्योंकि उन्होंने विचारों से परे की अवस्था का अनुभव ही नहीं किया है, लेकिन यह एकदम सत्य है। अपनी जानकारी से परे के आयाम को नकारना एक बचपना है। विचार चेतना के प्रवाह को एकमुखी बनाते हैं। विचारशील व्यक्ति किसी भी विषय पर विचार करते समय किसी एक ही दिशा में निरंतर सोच रहा होता है, जबकि चेतना अस्तित्व का एक सर्वव्यापक आयाम है। विचार एक दृष्टिकोण है, जबकि चेतना स्वयं एक दृष्टि है। विचारों के पूर्ण अवरोध के बगैर आप चेतना के साम्राज्य में दाखिल नहीं हो सकते। चेतना सर्वज्ञ है, लेकिन विचार नहीं। सभी प्रकार के विचार एक रुकावट है। जंजीर तो आखिर जंजीर ही है, चाहे वह लोहे की हो या सोने की।

इस संदर्भ में एक भ्रांति यह भी है कि मन को विचारों से पूरी तरह खाली नहीं किया जा सकता। लेकिन जिस प्रकार पांव में कुछ कांटे लगे हो तो एक और कांटा लेकर उन सभी कांटों को निकाल दिया जाता है और बाद में उस काटे को भी फेंक दिया जाता है। इसी प्रकार अनेक विचारों से छुटकारा पाने के लिए किसी एक विचार पर मन को केंद्रित किया जाता है। मेरा यह यथार्थ अनुभव है कि- “जैसे ही मन किसी भी एक विचार पर पूरी तरह केंद्रित होता है तैसे ही उस विचार सहित सभी विचार गायब हो जाते है और मनुष्य विचारों से परे के सर्वव्यापक परम चेतन अस्तित्व का अनुभव करता है।” जिस अवस्था में यह अनुभव होता है, उसी अवस्था को योग दर्शन में तुरिया अवस्था कहा जाता है जो कि स्वपन, जागृत और सुषुप्ति अवस्था से परे की अवस्था है।

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