ध्यान चेतना के विकास की यात्रा है। जीवन, मात्र जन्म और मृत्यु के बीच की अवधि तक ही सिमित नहीं है। जीवन तो अनंत है। शरीर आत्मा की इस कालयात्रा का महज एक छोटा सा पड़ाव है। शरीर इस यात्रा के लिए एक माध्यम की तरह है। आत्मा भिन्न-भिन्न शरीरो के माध्यम से यात्रा करती रहती है। हर जन्म में होने वाले अनुभवों से आत्मा कुछ न कुछ सीखती है, जो अगले जन्म में संस्कार के रूप में उसके साथ रहता है। कई जन्मो तक दुःख-सुख भोगने के बाद जीवात्मा को ये अहसास होता है कि सच्चा सुख बाहर नहीं, अन्दर है और फिर उसकी तलाश मनुष्य अपने भीतर ही करता है। चेतना के विकास के साथ-साथ मनुष्य की समझ बढती जाती है और वह प्रकृति के रहस्यों को समझना शुरू कर देता है।
ध्यान मनुष्य की इसी आन्तरिक समझ का विकास करता है। समझ के जिस स्तर को प्राप्त करने में मनुष्य को कई जन्म लगते है, वह अवधि ध्यान के द्वारा कम हो जाती है। ध्यान के जरियें कई जन्मो की यात्रा एक ही जन्म में पूरी हो जाती है। लेकिन इसके लिए यह जरूरी है कि हम खुद के दायरे से बाहर आये। क्योंकि नाव की रस्सी को खोले बिना उस पार नहीं जाया जा सकता। रुसी दार्शनिक ओस्पेंस्की जब गुर्जिएफ़ के पास गये तो गुर्जिएफ़ ने एक कोरा कागज देकर कहा कि इस पर वह लिख दो जो तुम जानते हो। काफी कोशिश करने के बाद भी ओस्पेंस्की एक शब्द तक नहीं लिख पायें और यह कहते हुए वह कागज लौटा दिया कि – मैं कुछ नहीं जानता। दरअसल सच्चा ज्ञान खुद को जानना है। खुद को जाने बिना, खुद की भलाई हम कैसे कर सकते है? समझ और प्रतिक्रिया के स्तर का विकास ही हमारे भाग्य का निर्धारण करता है। इन दोनों ही बातों का हमारी निर्णय क्षमता से गहरा सम्बंध है, और निर्णय ही भाग्य है।