भाग्य और कर्म एक उलझी हुई पहेली है। संसार के सभी धर्मो में भाग्य की अवधारणा पाई जाती है। कर्मों की प्रतिक्रिया का नाम ही भाग्य है। हमारा मनुष्य के रूप में यह पहला जन्म नहीं है इससे पहले भी हम अनेक जन्म ले चुके हैं और मोक्ष तक यह सिलसिला जारी रहेगा। कोई भी मनुष्य अपने द्वारा किए गए कर्मों के प्रतिफल से नहीं बच सकता और यह जरूरी नहीं कि एक ही जन्म में किए गए सभी कर्मों का फल इसी जन्म में भोगा जा सके, तो शेष बचे हुए कर्मों का फल भोगने के लिए उसे पुनर्जन्म लेना पड़ता है। उस अगले जन्म में हमे परिवार और समाज के रूप में कुछ निश्चित परिस्थितियां मिलती है। सिर्फ यही नहीं पूर्व जन्म के स्तर के अनुरूप ही बौद्धिक और भावनात्मक क्षमता का निर्धारण होता है। इसी पूर्व निर्धारित विरासत का नाम भाग्य है। एक बात तो तय है की जो पूर्व निश्चित है उसे जाना जा सकता है क्योंकि यह संसार कार्य और कारण के सिद्धांत पर आधारित है। तो इस तरह पूर्व निर्धारित भाग्य को जानने की विधा का नाम ज्योतिष है। हालाँकि भविष्य को पूरी तरह केवल संत महात्मा ही जान सकते हैं जिनकी दिव्यदृष्टि खुली हुई है लेकिन दिव्य दृष्टि के अभाव में ज्योतिष एकमात्र ऐसी तकनीक है जिससे भविष्य जाना जा सकता है। हां यह सच है कि ज्योतिष की भविष्यवाणियां हमेशा सच नहीं होती, लेकिन हमेशा गलत भी नहीं होती।
नेत्र तीन प्रकार के होते है– चर्म चक्षु, ज्ञान चक्षु, दिव्य चक्षु। चर्म चक्षु से हमे सामान्य ज्ञान होता है, ज्ञान चक्षु से विशेष ज्ञान तथा दिव्य चक्षु से मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है। चर्म चक्षु से हमे सूर्य गतिशील दिखाई देता है लेकिन वो पृथ्वी के चारो तरफ़ नहीं घूमता। जिस ज्ञान के सहारे हमने यह जाना की सूर्य नहीं, पृथ्वी सूर्य के चारो तरफ घूमती है, वही ज्ञान चक्षु है। रही बात दिव्यदृष्टि की तो इसकी दो विशेषताएं होती है। दिव्यदृष्टि दूरदर्शी और पारदर्शी होती है। दूरी दो तरह की होती है- पहली समय की और दूसरी स्थान की। जिसकी दिव्यदृष्टि खुली है उसके लिए 5000 किलोमीटर दूर खड़ा व्यक्ति और 5000 वर्ष बाद पैदा होने वाला व्यक्ति बराबर है। ईश्वर कृपा से मुझे ऐसे महात्माओं का पावन सान्निध्य मिला। अपनी भारत यात्रा के दौरान मैंने बीकानेर (राजस्थान) से बनारस (उत्तर प्रदेश) और व्यास(पंजाब) से चिदंबरम (तमिलनाडु) तक की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान मुझे कुछ महात्मा मिले। उनके पावन सान्निध्य में मैंने थोड़ा बहुत प्रारब्ध की पहेली को समझा है। मेरा मानना है कि भाग्य प्रतिबन्ध नहीं, प्रतिक्रिया है। लेकिन यहाँ भी एक समस्या है कि प्रारब्ध से हमे सिर्फ हालात ही नहीं मिलते, बुद्धि भी मिलती है। यह जरूरी नहीं की किसी के समझाने से कोई मान ही जाये। जिस बुद्धि पर हमे बहुत नाज है, वह भी पिछले जन्मों के संस्कारों से प्रभावित होती है। अतः हमारे निर्णय निष्पक्ष नहीं होते।