मृत्युंजय की अवधारणा कोई कल्पना नहीं है। इस सन्दर्भ में मैं अपने गुरुदेव श्रीराम दुबे जी से जुड़े एक संस्मरण का जिक्र करना चाहता हूँ। मेरी आध्यात्मिक पिपासा को शांत करने के लिए दुबे जी स्वयं तो मेरा मार्गदर्शन करते ही थे, साथ ही अपने समकालीन महात्माओं के दर्शन के लिए भी कहा करते थे। एक बार मैं  उनके पास बैठा हुआ था। यह 2005 के बसंत की बात है। बाऊजी ने मुझे कहा की बेटा एक बार आपको स्वामी रामसुखदास जी के दर्शन अवश्य करने चाहिए। वे उच्च कोटि के सन्यासी है। मैंने कहा ठीक है बाऊजी। लेकिन उन्होंने फिर कहा कि उनके दर्शन इसी वर्ष उतरायण(मकर सक्रांति से लेकर छह महीने तक की अवधि-प्रतिवर्ष 14 जनवरी से 15 जुलाई तक)के अंतिम पक्ष से पहले-पहले कर लेना, नही तो कभी नही कर पाओगे। मैंने हैरानी से पूछा– ऐसा क्यों बाऊजी? इस पर दूबे जी ने बताया कि एक बार स्वामी रामसुखदास जी से हमारी भेंट हुई। कुछ समय हरिचर्चा के बाद उन्होंने हमसे पूछा कि मेरी आयु कितनी है। इस पर दुबेजी ने कहा- स्वामीजी आपने तो मृत्यु को जीत लिया है, इसलिए आपकी मृत्यु तब होगी जब आप चाहोगे। स्वामीजी ने फिर पूछा- अच्छा ठीक है, तो फिर बताओ कि इस नाशवान संसार को त्यागने की हमारी इच्छा कब होगी। तब दुबेजी ने कहा कि जब आप अपनी आयु के 101 वर्ष पूरे कर लोगे, तब उतरायण के अंतिम पक्ष में आप इस देह को त्यागना चाहोगे।

इस प्रकार दुबेजी ने मुझे बताया कि यही वो उतरायण है, जिसके अंतिम पक्ष में स्वामीजी देह त्याग देंगे। अतः आपको उनसे समय रहते मिल लेना चाहिए। अब मेरे मन में एक सवाल आया कि इतने बड़े महात्मा  से व्यक्तिगत मुलाकात कैसे होगी। मेरे पूछने से पहले ही दुबेजी ने कहा की तुम जाओ और वहा कहना की बीकानेर से श्रीराम दुबे ने भेजा है। आपको कोई नहीं रोकेगा। स्वामीजी हमे अच्छी तरह जानते है। इस प्रकार बीकानेर से वापिस आने के लगभग चार महीने बाद जून महीने के अंतिम सप्ताह में अपने मामाजी के साथ मैं स्वामीजी के निवास स्थान ऋषिकेश स्थित स्वर्गाश्रम गया। आश्रम में स्वामीजी के सेवादारो को मैंने कहा की मुझे स्वामीजी से मिलना है, उनके मना करने पर मैंने दुबेजी का सन्देश दिया। वो सेवादार स्वामीजी के कमरे में गया और करीब 15 मिनट बाद हमारे पास आया और बोला की ठीक है आप आधा घंटा इंतज़ार करो। ठीक आधे घंटे बाद वह सेवादार हमें स्वामीजी के कमरे में ले गया। स्वामीजी एक तख़्त पर विराजमान थे हम दोनों ने उन्हें प्रणाम किया। कुछ पल हमारा वार्तालाप हुआ, उसके बाद हम बाहर आ गये। ऐसे तेज़स्वी महत्मा के दर्शन करके मन प्रसन्न हो गया। उसके दो दिन बाद हम घर आ गये और अगले दिन (4 जुलाई 2005) को सुबह जैसे ही टेलिविज़न पर समाचार सुने, उनमे खबर आई की स्वामी रामसुखदास जी ने शरीर छोड़ दिया । ध्यान अनंत जीवन के आनंद का मार्ग है|

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