“मृत्युंजय” शब्द भारतीय अध्यात्म की अनमोल विरासत है। इस शब्द का अर्थ है “मृत्यु पर विजय”। यह शब्द केवल भारतीय उपमहाद्वीप में ही प्रचलित है। भारत भूमि पर अवतरित संतो-महात्माओं ने मृत्यु पर गहन शोध किया। इस प्रश्न पर उन्होंने विशेष ध्यान दिया कि– मृत्यु जीवन का अंत है या आरम्भ? यदि मृत्यु जीवन का अंत है तो अध्यात्म महत्वहीन है और यदि मृत्यु जीवन का एक नए रूप में आरम्भ है तो अध्यात्म से महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं है। सच तो यह है कि जीवन अनंत और अविनाशी है। मृत्यु तो इस संसार रुपी शोरूम का चेंजिंग रूम है। संत कबीर ने कहा है–
जिस मरने ते जग डरे मेरे मन आनंद। मरने ही ते पाईये पूरण परम आनंद।।
इस संसार में ऐसा कोई भी आनंद नहीं है जिसे मौत ख़तम न कर सके। लेकिन समाधि का आनंद एकमात्र ऐसा आनंद है जिसे मृत्यु मिटा नहीं सकती क्योंकि यह आनंद ही मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का है। इस संसार में भय रहित आनंद केवल मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का है। ध्यान के जरिये ही समाधि को प्राप्त किया जा सकता है। जब मृत्यु आती है तो हमारी आत्मा पैर के तलवो से ऊपर की और सिमटती है और फिर आँखों के बीच आकर शरीर छोड़ देती है। पहले पैर ठण्डे हो जाते है फिर टाँगे ठण्डी हो जाती है और फिर सारा शरीर ठण्डा (अचेत) हो जाता है। यही मृत्यु है। समाधि में भी यही होता है। इसे जीते जी मरना कहते है। इसी अवस्था के बारे में संत रामदास जी ने कहा है – “जीवत मरिये भवजल तरिए“ अर्थात समाधि के जरिये ही हम जीते-जी मरकर जन्म और मरण के इस चक्र से छुटकारा पा सकते है। जब तक हम जीते-जी नहीं मरते, तब तक हम अनंत जीवन प्राप्त नहीं कर सकते। तीसरी आंख मृत्यु की दहलीज है, जिसे लांघते ही अनंत जीवन प्राप्त होता है। साधारण मृत्यु और जीते-जी मरने में ख़ास फर्क यह है कि जीते-जी मरने में आत्मा का शरीर से सम्बन्ध नहीं टूटता। शरीर के सब अंग कार्य करते रहते है, लेकिन उनकी गतिविधि अत्यंत धीमी हो जाती है। यहाँ मैं ये जरूर बताना चाहूँगा कि शारीरिक गतिविधियाँ चाहे कितनी ही धीमी हो जाये लेकिन शरीर में गर्मी(Heat) बरकरार रहती है, जबकि मृत्यु के वक़्त सारा शरीर ठण्डा हो जाता है। जो अभ्यासी जीते-जी मरने की इस कला में प्रवीण हो जाता है, वह अपनी इच्छानुसार शरीर को छोड़ सकता है और वापिस शरीर में आ सकता है। जब सारी चेतनता निचले शरीर को खाली कर देती है और हम तीसरी आँख में से गुजरते है,तब हम स्थूल शरीर से बाहर हो जाते है और सूक्ष्म संसार में प्रवेश करते है। सभी संतो ने चेतना को आँखों के केंद्र (तीसरा तिल) पर सिमटने पर जोर दिया है और यह केवल ध्यान से ही संभव है। तीसरा तिल हमारे रूहानी सफ़र का अहम् पड़ाव है। मृत्यु की मृत्यु ही अनंत जीवन है। समाधि परमशान्ति और परमचेतना की यात्रा है। एकमात्र यही भयरहित आनंद है।