एक दिव्य पुरुष से भेंट

आध्यात्मिक जगत का यह अटल नियम है कि केवल जीवित सतगुरु ही जीवित शिष्य को दीक्षा दे सकता है | जिस प्रकार एक जीवित बीमार के लिए जीवित डॉक्टर की जरूरत होती है, उसी प्रकार जीवित शिष्य के लिए जीवित सतगुरु की ही जरूरत होती है | जो डॉक्टर मर चुका है, वह आज हमारा ईलाज नहीं कर सकता | एक मृत अध्यापक आज हमें नहीं पढ़ा सकता | यदि हम ज्ञान और ईलाज के लिए एक गुजरे हुए अध्यापक और डॉक्टर की तलाश में है तो ना तो हमें ज्ञानपिपासा है और न ही हम बीमार है | मानवजाति की हर पीढ़ी में ऐसे महापुरुष होते हैं, लेकिन विडंबना यह है कि हम उनकी खोज वर्तमान की बजाय भूतकाल में करते है | इसीलिए वे हमें मिलते भी नहीं क्योंकि हम तैयार ही नहीं है | आध्यात्मिक सन्दर्भ में हम “आत्मविरोध की जड़ता” के शिकार है | सतगुरु के सिवाय हमें सभी चीज़े वर्तमान की चाहिए | दरअसल जिसे बादल की जरूरत नहीं उसे वर्षा की भी जरूरत नहीं | हमें एक ऐसी हस्ती की जरूरत है जो एक साथ मनुष्य और परमात्मा के स्तर पर हो, इसी हस्ती को गुरु कहते है | कभी-कभी हमारे मन में एक संशय आता है कि आजकल असली गुरु नहीं होते, लेकिन हमें याद रखना चाहिए की नक़ल भी असल की ही होती है | जो है ही नहीं उसकी नक़ल भी नहीं हो सकती | क्या हममे से किसी ने भोंकते हुए शेर की नक़ल देखी है, नहीं…..क्योंकि शेर कभी भोंकता ही नहीं | अतः अविद्यमान की नक़ल नहीं हो सकती |

यहाँ मैं ऐसे ही महापुरुष से भेंट का मेरा अनुभव साँझा करना चाहूँगा | दस वर्ष की आयु में घटित दो घटनाओं – सूर्यास्त और शवयात्रा के दृश्य ने मेरी जीवनधारा को अध्यात्म की और मोड़ दिया | कुछ वर्षो के स्वाध्याय और ध्यान के पश्चात मुझे ये अहसास हुआ कि जीवित महात्मा के सान्निध्य के बिना आध्यात्मिक उन्नति पूर्ण नहीं हो सकती | अतः मैं एक ऐसे महात्मा की खोज में रहने लगा जो इस अमरपथ पर मेरा मार्गदर्शन कर सके | साथ ही मैंने यह भी निश्चय किया कि मैं उस महात्मा से तबतक कुछ नहीं पूछूँगा जब तक वे मुझे देखने मात्र से मेरे बिना पूछे मेरे सभी सवालो के जवाब ना दे दे | क्योंकि जो सिद्ध पुरुष होते है वो बिना जाने ही शिष्य की मनोदशा जान लेते है और आखिरकार मेरे जीवन के दूसरे दशक के अंतिम दिन 29 अगस्त 1999 को मेरी ऐसे ही महापुरुष से भेंट हुई | मैं अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ बैठा हुआ था | उनके यहाँ वो महात्मा आये | जिनका नाम श्रीराम दूबे था | उस वक्त का दृश्य कुछ इस प्रकार था | जिस वक़्त दुबेजी बाहर वाले गेट से अंदर आए उस वक़्त मैं बरामदे में बैठा हुआ था | जैसे ही उनकी नज़र मुझपर पड़ी, वे एकदम ठहर गये और मुझे कहा कि- “मैं तुम्हे पिछले तीन जन्मो से जानता हूँ”| उसके बाद मेरे बगैर पूछे उन्होंने मेरी सभी जिज्ञासाओं का जवाब दे दिया | वह मेरे जीवन का महान दिन था | लगभग सात वर्ष तक मुझे उनकी दिव्य संगती का लाभ मिला| जिसका वर्णन मैं अपनी आगामी पुस्तक में करूंगा|

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