शब्द एक अमर और अविनाशी जीवनधारा है। जिसने सारे ब्रह्माण्ड की रचना की है। ना तो इसका कोई आदि है, ना अंत। शब्द हर प्रकार के भय से रहित एक ऐसी स्वयंभू व सर्वशक्तिमान सत्ता है जो अपने संपर्क में आने वाली जीवात्मा को अभयदान देता है।
समय व स्थान की हर सत्ता में अंतर्यामी होते हुए भी शब्द इन दोनों से परे है। इन्द्रियों की पहुँच से परे होने के कारण शब्द अलौकिक और अविकारी है। यह कभी न बदलने वाली स्वतन्त्र सत्ता है। निर्गुण और निरपेक्ष भी यही है तथा निराकार होने के कारण ना तो इसका कोई शरीर है ना मूरत।
भले ही कोई इसके विषय में न जानता हो परन्तु यह एक ऐसी स्वयंसिद्ध सत्ता है जो किसी परिचय की मोहताज नहीं है। किसी भी जाति, धर्म, आयु और लिंग के मानव को इसके सम्पर्क में आते ही इसकी सर्वज्ञता और सर्वव्यापकता का सहजज्ञान हो जाता है। इसके ज्ञान के लिए किसी भी भाषा और लिपि की आवश्यकता नहीं है।