
जीवन का लक्ष्य है-ठहराव। क्योंकि भागता हुआ व्यक्ति हाँफते हुए मर जाता है लेकिन दौड़ खत्म नहीं होती। भले ही हम अंधकार युग से आधुनिक युग में आ गए है लेकिन अंधेरा अब भी कायम है। अंधकार युग में आंखे अँधेरे से अंधी थी और आज प्रकाश से अंधी है। क्योंकि प्रकाश को देखने के लिए उचित दूरी चाहिए। जब तक मानवीय विकास नहीं होता तब तक सभ्यताओं को शान्ति नसीब नहीं होगी। कल से आज तक का जितना भी विकास हुआ है समय और स्थान की दूरी को कम करने के लिए ही हुआ है, परन्तु ना तो वह समय किसी के पास है और ना ही दिलों की दूरियां कम हुई है। इतने विकास के बावजूद भी मानव की आवश्यकता व कमजोरी में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। पाषाण युग से लोह युग तक ये दोनों बातें वैसी की वैसी है। विकास वस्तु का हुआ है व्यक्ति का नहीं और इस विकास के कारण मनुष्य वस्तुवादी हो गया है तथा ये भूल गया है कि वस्तु व्यक्ति के लिए है, व्यक्ति वस्तु के लिए नहीं। एक सेठ के घर में आग लग गई तो उसने जल्दी से सारा सामान बाहर निकाल लिया और जब सेठानी आई तो सेठ ने कहा कि चिन्ता की कोई बात नहीं है मैंने सारा सामान बाहर निकाल लिया है। इस पर सेठानी ने पूछा-और हमारा बेटा? यह सुनते ही सेठ ने अपना माथा पकड़ लिया और रोते हुए कहने लगा कि उसे तो मैं भूल गया। सबकुछ जिसके लिए था उसे ही मनुष्य भूल गया। तो फिर बचा ही क्या? घड़ी की कीमत उसकी सुन्दरता की वजह से नहीं, सही समय की वजह से होती है। ठीक इसी तरह मनुष्य के जीवन की सार्थकता भी उसके गुणो की वजह से होती है सुन्दरता की वजह से नहीं। एक बार अरस्तु ने सिकन्दर को कहा था कि हे सिकन्दर हम जो भी कार्य करते है इतिहास के लिए करते है इसलिए सफल मनुष्य बनने की बजाए सार्थक बनो। पूरी किताब पढने के लिए यहाँ क्लिक करें…