शरीर आत्मा का और ब्रह्माण्ड परमात्मा का विस्तार है। जीवन कालयात्रा है। इस यात्रा में जीव अनेक जन्म ग्रहण करता रहता है और उसके हर जन्म पर  उसके पिछले जन्म के  संस्कारों का प्रभाव रहता है। इन्हीं संस्कारों के अधीन वह इस जीवन में अपने निर्णय करता है और यही निर्णय उसके भाग्य का  निर्माण करते हैं। पूर्व जन्म में जीव का जैसा स्वरूप व गति होती है, इस जन्म में भी मनुष्य  संस्कार वश उसी उसी “आकृति और प्रकृति” का अनुसरण करता है। आकृति और प्रकृति का सम्बन्ध अटूट है। जिसकी जैसी आकृति होती है उसकी वैसी ही प्रकृति होती है। शेर घास नहीं खाता और घोड़ा मांस नहीं खाता। हम पिछले जन्म में जो कुछ भी थे उस प्रजाति की प्रकृति को थोड़ा अथवा कम मात्रा में इस जन्म में जरूर लेकर आते हैं। सामुद्रिक शास्त्र का सीधा संबंध मनुष्य के माथा, आंखें, नाक़, कान और होंठों से है। आज हम कान का मनुष्य की प्रकृति से सम्बन्ध जानेंगे।

जरा इन दोनों आकृतियों पर गौर फरमाइए –

कान के इस हिस्से को Medical Science में Tragus or Antitragus कहते है। जब इनकी दूरी कम होती है तो जातक में रचनात्मकता की कमी हो जाती है। ऐसे जातक में creativity का अभाव होता है। ऐसे जातक अनुकरण करना ही ज्यादा पसंद करते है। यहाँ एक बात मैं जरूर स्पष्ट  करना चाहूँगा की कोई भी एक लक्षण अंतिम निर्णायक नहीं होता। अतः किसी एक ही लक्षण के आधार पर निर्णय नहीं लेना चाहिए। परन्तु हाँ, हर लक्षण का कम या ज्यादा मात्रा में असर जरूर होता है। इस तरह के कान की बनावट वाले व्यक्तियों को किसी भी नए कार्य को करने से पहले अपने शुभचिंतको की राय जरूर ले लेनी चाहिए।

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