जीवन जन्म जन्मांतर की यात्रा है। इस यात्रा में जीव अनेक जन्म ग्रहण करता रहता है और उसके हर जन्म पर उसके पिछले जन्म के संस्कारों का प्रभाव रहता है। इन्हीं संस्कारों के अधीन वह इस जीवन में अपने निर्णय करता है और यही निर्णय उसके भाग्य का निर्माण करते हैं। पूर्व जन्म में जीव का जैसा स्वरूप व गति होती है, इस जन्म में भी मनुष्य संस्कार वश उसी उसी “आकृति और प्रकृति” का अनुसरण करता है। आकृति और प्रकृति का सम्बन्ध अटूट है। जिसकी जैसी आकृति होती है उसकी वैसी ही प्रकृति होती है। शेर घास नहीं खाता और घोड़ा मांस नहीं खाता। हम पिछले जन्म में जो कुछ भी थे उस प्रजाति की प्रकृति को थोड़ा अथवा कम मात्रा में इस जन्म में जरूर लेकर आते हैं। मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ रचना है। इसीलिए मनुष्य को सृष्टि का सिरमौर कहा जाता है, केवल मनुष्य को ही परमात्मा ने सही और गलत की पहचान के लिए विवेक की शक्ति से नवाजा है। मनुष्य शरीर का सीधा संबंध उसके अवचेतन मन और पिछले जन्मों से है। पिछले जन्मों के कर्मों की प्रतिक्रिया ही भाग्य कहलाती है और प्रकृति ने इस भाग्य को आकार और रेखाओं के रूप में मनुष्य शरीर पर अंकित कर दिया है। ज्योतिर्विद एक आर्कियोलॉजिस्ट की तरह इस प्रतीकात्मक भाषा को पढ़ने का काम करता है।
हस्तरेखा और सामुद्रिक शास्त्र भारतीय ज्योतिष की दो शाखाएं हैं। मनुष्य के अंग लक्षण देखकर उसके भाग्य का अनुमान लगाने की विद्या को “सामुद्रिक शास्त्र” कहते हैं। सामुद्रिक शास्त्र का वैज्ञानिक नाम “विकासवाद का सिद्धांत” है। डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत के अनुसार हर आकार के पीछे एक विचार होता है और हर विचार का एक निश्चित आकार होता है। इस दुनिया में कोई ऐसा मूर्तिकार नहीं है जो अपनी मूर्ति की बनावट में ही उसका भविष्य अंकित कर दे कि इस मूर्ति के साथ क्या होगा या कब टूटेगी या इसे कहां रखा जाएगा इत्यादि। मैं परमात्मा की यह अद्भुत इंजीनियरिंग देखकर हैरान होता हूं कि उसने हमारे संपूर्ण भूत और भविष्य को हमारे शरीर पर अंकित कर दिया है। ईश्वर ही ऐसा सर्वश्रेष्ठ मूर्तिकार है, जिसकी बनाई हर मूर्ति (शरीर) उसके भाग्य का गूढ अक्षर है। सामुद्रिक शास्त्र हमें हमारे भाग्य की विरासत को समझने में सहायता देता है। याद रखिये विरासत पूर्वनिर्धारित है, वसीयत नहीं।
महान दार्शनिक स्पिनोजा ने कहा है कि- “विचार और विस्तार एक साथ चलते हैं।” इस सिद्धांत को उन्होंने “समानांतरवाद के सिद्धांत” का नाम दिया है। मतलब मानसिक और भौतिक स्तर एक जैसा होता है या भौतिक स्तर मानसिक स्तर का प्रतिबिंब होता है। वास्तव में मन और पदार्थ एक ही सत्ता के दो भिन्न भिन्न रूप है। हालांकि यह दोनों अलग-अलग दिखाई देते हैं लेकिन है एक ही सिक्के के दो पहलू । इसीलिए मानसिक और शारीरिक क्रियाकलाप जुड़े हुए हैं, जब मन में हलचल होती है तो शरीर में भी होती है और इसका उल्टा भी सच है कि जब शरीर में हलचल होती है तो मन में हलचल होती है। यही मैं कहना चाहता हूं कि- शरीर आत्मा का और ब्रह्माण्ड परमात्मा का विस्तार है। बेशक हम स्वतंत्र हैं लेकिन उतना ही, जितना खूंटे से बंधा घोड़ा स्वंतत्र होता है- रस्सी की लम्बाई तक। हम सोचते हैं कि हम आजाद हैं परंतु सच तो यह है कि हमारे सोचने के ढंग पर हमारे पिछले जन्मों के संस्कारों का प्रभाव होता है और हम पूरी आजादी से सोच भी नहीं सकते। हमें नहीं पता की हमारी आँखों पर कितने चश्मे लगे हुए है। क्या रंगीन चश्मे पहनकर कोई रंगों की सही पहचान कर सकता है? ध्यान का मकसद इन्ही चश्मों को हटाना है।
सामुद्रिक शास्त्र का सीधा संबंध मनुष्य के माथा, आंखें, नाक़, कान और होंठों से है। अब क्योंकि ये सभी अंग चेहरे पर हैं और इन्हीं अंगों की बनावट से मनुष्य की प्रकृति जाहिर होती है, इसीलिए कहा जाता है कि चेहरा इंसान की शख्सियत का आईना होता है। चेहरे से मनुष्य की विशेषताओं का पता लगता है इन्हीं विशेषताओं के अधीन होकर मनुष्य कर्म करता है और इन्हीं कर्मों से उसका भाग्य बनता है। इस प्रकार चेहरे से उसके भाग्य का पता लगता है। ज्योतिष एक सूक्ष्म विज्ञान है। यह कोई भौतिक विज्ञान नहीं है। यदि हम सूरज के सातों रंगों को मिला दे तो सफेद रंग बनता है लेकिन यदि हम बाजार से सातों रंगों को लेकर आए और आपस में मिला दें तो सफेद ना बनकर काला अथवा भूरा रंग बन जाएगा। भौतिक स्तर पर वही सात रंग गहरे बन जाते है जबकि अभौतिक स्तर पर वे रंग सफ़ेद बन जाते है। यही अंतर है स्थूल और सूक्ष्म अध्ययन में। ठीक इसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र और दर्शन शास्त्र को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। जो दार्शनिक नहीं है वह ज्योतिषाचार्य भी नहीं हो सकता। यही वजह है कि हमारे सभी महर्षि ज्योतिर्विद होने के साथ-साथ दार्शनिक भी थे। जैमिनी ऋषि ने महर्षि पराशर से ज्योतिष विद्या का ज्ञान प्राप्त किया और इसके साथ ही वे “मीमांसा दर्शन” के प्रवर्तक भी थे