आजकल ज्योतिष में तीन प्रकार के मिथक प्रचलित है, जो जातक में भय उत्पन्न करते हैं। वे है: कालसर्प योग, मूल शांति और मंगलीक दोष। आइए हम एक-एक करके इन पर विचार करते हैं-
कालसर्प योग- ज्योतिष के प्राचीन ग्रंथों में कालसर्प नाम से कोई योग नहीं है। कोई भी ज्योतिषी महर्षियों के ग्रंथों में इन योगो को नहीं दिखा सकता। इसलिए मैं कहना चाहूंगा कि किसी को भी इस तथाकथित योग के नाम से भयभीत नहीं होना चाहिए। ज्योतिष की मनमानी व्याख्या नहीं हो सकती। यह एक दिव्य विज्ञान है। इसे महर्षियों ने दिव्य दृष्टि से प्रकट किया है। अतः जिस बात को महर्षियों ने महत्व नहीं दिया, वह यकीनन महत्वहीन है। ज्योतिषशास्त्र आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धांत और न्यूटन के प्रतिक्रिया सिद्धांत के अनुसार काम करता है।
आधुनिक युग के महान ज्योतिषाचार्य श्री K. N. Rao ने अपनी पुस्तक “कालसर्प योग” में इस योग को एक नकली योग बताया है। यदि किसी के जीवन में कोई ऐसी परेशानी है, जिसका कोई समाधान नजर नहीं आ रहा तो उसका कारण कालसर्प योग नहीं, कोई और ग्रह स्थिति होगी। यदि कालसर्प योग इतना ही महत्वपूर्ण होता तो महर्षि पराशर, वराहमिहिर और अन्य ज्योतिष महर्षियों ने इस योग को अपने ग्रंथों में क्यों नहीं शामिल किया? क्यों उन्होंने यह नहीं बताया कि यह योग किसी के भी जीवन के संपूर्ण विकास को रोक सकता है? इसके बजाय तथ्य तो यह है कि राहु और केतु को किसी भी प्रसिद्ध योग में शामिल ही नहीं किया गया है। 10वीं सदी के महान ज्योतिर्विद श्री कल्याण वर्मा ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ “सारावली” में तो राहु और केतु का जिक्र तक नहीं किया है। यह तथ्य योगो के निर्माण में राहु और केतु की महत्वहीनता को दर्शाती है। सुप्रसिद्ध ज्योतिर्विद डॉक्टर पी.एस. शास्त्री का कथन है कि “ज्योतिष शास्त्र के मानक ग्रंथों में कालसर्प योग का कोई उल्लेख नहीं है”।
मूलशांति– हमारे महर्षियों ने आकाशचक्र को 12 राशियों और 27 नक्षत्रों में विभाजित किया। इन राशियों और नक्षत्रों को तीन गुणों (सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण) के आधार पर तीन खंडों में विभाजित किया गया है। अतः राशिचक्र में केवल तीन ऐसी स्थितियां होती है जब राशि और नक्षत्र दोनों एक साथ समाप्त हो जाते है। इन्ही समाप्ति स्थल से नई राशि और नक्षत्र की शुरुआत होती है। इन सन्धियों पर पड़ने वाले नक्षत्रों को मूल नक्षत्र कहते है। इनकी कुल संख्या छह है। एक तरह से मूल नक्षत्र तीन राशिखंडों के जोड़ है। जोड़ चाहे किसी भी प्रकार का हो, वहां कुछ न कुछ अशान्ति रहती ही है। जैसे हड्डियों का जोड़, ऋतुओं का जोड़, सीमाओं का जोड़, रास्तों का जोड़ आदि। वहां पर अतिरिक्त ध्यान रखने की जरुरत होती है। इसी प्रकार शास्त्रों के अनुसार इन नक्षत्रों में जन्म लेने वाले जातक की Immunity भी कुछ कमजोर होती है। इसीलिए महर्षियों ने ऐसे जातक के लिए मूलशांति का प्रावधान किया है।
मूलशांति की प्रक्रिया ऐसी है, जिसका सीधा सम्बन्ध बच्चे की Immunity के Boost up से है और Vaccination Process का भी यही मकसद है। मूल शांति के लिए 27 पेड़ो के पत्ते और 27 गांवों की मिटटी को एकत्र करके 27 कुओं के पानी में उबालकर बालक को नहलाया जाता है और थोडा सा पिलाया जाता है। इसके पीछे वैज्ञानिक रहस्य यह है कि 27 पेड़ो के पत्ते और 27 गांवों की मिटटी के Bacteria, 100 डिग्री के पानी में उसी अवस्था में पंहुच जाते है जिस अवस्था में Vaccine में होते है। इस Attenuated अवस्था के Bacteria & Virus बच्चे के संपर्क में आने से बच्चे की Immunity उनके प्रति Antibody बना लेती है और बच्चा उस जलवायु में स्वास्थ्यपूर्वक जीने की क्षमता अर्जित कर लेता है। लगभग ऐसा ही Vaccination से होता है। प्राचीनकाल में टीकाकरण के अभाव में मूलशांति की प्रक्रिया अपनायी जाती थी, लेकिन आज के आधुनिक युग में मूलशांति की कोई आवश्यकता नहीं है। केवल Vaccination ही काफ़ी है।
मंगलीक दोष– मंगलीक दोष के विषय में भी काफी उलझने हैं। कालसर्प योग की तरह ही यह योग भी ज्योतिष के प्राचीन ग्रंथों में नहीं पाया जाता। बीसवीं सदी से पहले की प्रकाशित किसी भी पुस्तक में इस योग का कोई उल्लेख नहीं है। सबसे पहली बार यह योग श्री रामदीन दैवैज्ञ की पुस्तक “रंजन संग्रह” में पाया जाता है। यह पुस्तक बीसवीं सदी में प्रकाशित हुई थी। मेरे ख्याल से मंगल चाहे जन्मपत्री में कहीं भी बैठा हो, लेकिन यदि सप्तमेश और सप्तम कारक अनुकूल परिस्थितियों में है तो वैवाहिक जीवन ठीक बीतेगा और यदि बेशक जन्मपत्रिका मांगलिक नहीं है लेकिन सप्तमेश और सप्तम कारक यदि पीड़ित है तो वैवाहिक जीवन सुख से व्यतीत नहीं हो सकता। हां, यहां एक बात और कहना चाहूंगा कि जो जातक मांगलिक है उनके विवाह से पहले उनका Blood Group अवश्य मैच करना चाहिए, क्योंकि कुछ ब्लड ग्रुप ऐसे होते हैं जिनमें किया गया विवाह संतान उत्पत्ति में स्वास्थ्य से संबंधित कुछ ना कुछ प्रतिकूलता लिए हुए होता है। अंत में मैं अपने पाठको से यही कहना चाहूँगा कि उपरोक्त दोषों से भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है।