प्रकार अंधकार का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। प्रकाश की अनुपस्थिति ही अंधकार है। जिसके हाथ में प्रकाश है पूरे ब्रह्माण्ड में उसके लिए अंधकार नहीं है। इसी प्रकार जो शब्द से जुड़ा हुआ है, उसके लिए कहीं कोई दुख नहीं है। शब्द ही वह परम चेतन आनन्द की धारा है जिसे पाने के बाद कुछ और पाने की इच्छा नहीं रहती। शब्द के संदर्भ में एक बात और ध्यान देने योग्य है कि इसे इन स्थूल कानों से नहीं सुना जा सकता अर्थात् कानों से सुनी जा सकने वाली किसी भी बाहरी ध्वनि को शब्द नहीं कहा जा सकता। क्योंकि बाहरी धुन की तीन सीमाएं होती है-
1.इसे पैदा करने के लिए कोई साधन चाहिए।
2.इसे सुनने के लिए कोई माध्यम चाहिए।
3.बाहरी ध्वनि का आदि और अन्त होता है।
जबकि संतों के शब्द में ये तीनों ही बातें नहीं होती। संतों के शब्द में निम्नलिखित तीन विशेषताएं होती हैं-
1.यह स्वयं संचालित है। इसे पैदा करने के लिए किसी बाहरी साधन की आवश्यकता नहीं होती।
2.यह अपना माध्यम खुद है। इसे सुनने के लिए किसी भी माध्यम की आवश्यकता नहीं होती।
3.यह अनादि और अनन्त है। न तो इसका कोई आदि है और न अंत।
संत फ्रांसिस ने कहा था कि- ’’वस्तु स्थिति एक दिव्य संगीत है जिसका माधुर्य अतुलनीय है।’’ इसी प्रकार इजिप्ट के दार्शनिक फाईलो ने कहा था कि- ’’वास्तव में शब्द ही हमारा परमेश्वर है। प्रभु से प्रभु के अलावा कौन मिला सकता है। यह शब्द ही देह धारण करके हमें खुद से जोङता है लेकिन इसके बावजूद भी देहातीत रहता है। जैसे कि सूर्य का आकार और प्रकाश पानी में आने के बावजूद सूर्य पानी से अलग रहता है।’’